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येना॒ दश॑ग्व॒मध्रि॑गुं वे॒पय॑न्तं॒ स्व॑र्णरम् । येना॑ समु॒द्रमावि॑था॒ तमी॑महे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yenā daśagvam adhriguṁ vepayantaṁ svarṇaram | yenā samudram āvithā tam īmahe ||

पद पाठ

येन॑ । दश॑ऽग्वम् । अध्रि॑ऽगुम् । वे॒पऽय॑न्तम् । स्वः॑ऽनरम् । येन॑ । स॒मु॒द्रम् । आवि॑थ । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥ ८.१२.२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:2 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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शिव शंकर शर्मा

इस ऋचा से ईश्वरीय महिमा की स्तुति करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र (येन) जिस आनन्द से तू (दशग्वम्) माता के उदर में नवमास रह कर दशम मास में जो जीव निकलता है, उसे “दशगू” कहते हैं, ऐसे (अध्रिगुम्) जीवात्मा की (आविथ) रक्षा करता है तथा (वेपयन्तम्) अपनी ज्योति से वस्तुमात्र को कंपानेवाले (स्वर्णरम्) सूर्य्य की रक्षा करता है। (येन) जिस आनन्द से (समुद्रम्) समुद्र की रक्षा करता है। समुद्र का जल शुष्क न हो, ऐसा जिसका नित्य संकल्प है (तम्+ईमहे) उस आनन्द से हम जीव प्रार्थना करते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! प्रथम ईश्वर तुम्हारी रक्षा माता के उदर में करता है, तत्पश्चात् जिससे तुम्हारा अस्तित्व है, उस सूर्य्य का भी वही रक्षक है और जिससे तुम्हारी जीवनयात्रा के लिये विविध अन्न उत्पन्न होते हैं, उस महासमुद्र का भी वही रक्षक है ॥२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (येन) जिस बल से (दशग्वं) दश इन्द्रियों के अनुसार चलनेवाले (अध्रिगुं) अनिवार्य गतिवाले (वेपयन्तं) चेष्टा करने में समर्थ (स्वर्णरम्) कार्य्य करने में स्वतन्त्र जीव की और (येन) जिस बल से (समुद्रं) अन्तरिक्षलोक की (आविथ) रक्षा करते हैं, (तम्, ईमहे) उस बल की हम याचना करते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में यह कथन किया है कि यह भौतिक जड़ शरीर उसी परमात्मा की शक्ति से चेतनशक्ति को पाकर दश इन्द्रियों का अनुगामी बनकर विविध क्रिया करने में समर्थ होता है और “स्वर्णरम्” का अर्थ स्वतन्त्र है, जिससे यह सूचित किया है कि यह जीव कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में परतन्त्र है, क्योंकि परमात्मा प्रत्येक जीव के लिये कर्तृत्व तथा इष्टानिष्ट कर्मों की रचना नहीं करता, किन्तु यह जीव का ही स्वभाव है कि जिससे वह स्वयं इष्टानिष्ट कर्मों में प्रवृत्त होता है ॥२॥
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शिव शंकर शर्मा

अनया परमात्मदेवस्य महिमा स्तूयते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! येन=मदेन त्वम्। दशग्वम्=यो जीवो नवमासान् मातुरुदरे शयित्वा दशमे मासि निःसरति सः दशगूः। तं दशग्वम्। अध्रिगुम्=अधृतगमनमनिवारितगमनमनाहतगमनम् आत्मानम्। आविथ=रक्षसि। अपि च। वेपयन्तम्=स्वभासा सर्वं वस्तु कम्पयन्तम्। स्वर्णरम्=स्वः सुखस्य द्युलोकस्य वा नेतारं सूर्यम्। आविथ। अपि च। येन समुद्रमाविथ। कदापि समुद्रो मा शुषदिति यस्य संकल्पोऽस्ति। तम्=मदम्। ईमहे=प्रार्थयामहे ॥२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (येन) येन बलेन (दशग्वं) दशेन्द्रियाण्यनुगामिनम् (अध्रिगुं) अनिवार्यगतिमन्तं (वेपयन्तं) शरीरं वेपयन्तम् (स्वर्णरम्) स्वतन्त्रं (येन) येन च (समुद्रं) अन्तरिक्षलोकम् (आविथ) रक्षति (तम्, ईमहे) तं याचामहे ॥२॥